काल सर्प योग -पुराणों में राहु-केतु का वर्णन
का वर्णन सीधे तौर पर प्राचीन वैदिक ग्रंथों या पुराणों में नहीं मिलता है, जैसा कि हम अन्य महत्वपूर्ण ज्योतिषीय योगों के बारे में पढ़ते हैं।
यह ज्योतिषीय योग एक आधुनिक धारणा है, जिसे भारतीय ज्योतिष में बाद में जोड़ा गया माना जाता है।
हालांकि, प्राचीन ग्रंथों में राहु और केतु का उल्लेख मिलता है, और उनके प्रभावों को महत्वपूर्ण माना गया है। राहु और केतु का
वर्णन मुख्य रूप से महाभारत और विष्णु पुराण जैसे ग्रंथों में आता है, जहां यह बताया गया है कि राहु और केतु असुर (दानव)
स्वभाव के होते हैं और ग्रहण के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं।
पुराणों में राहु-केतु का वर्णन:
समुद्र मंथन की कथा: पुराणों में राहु और केतु की उत्पत्ति की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। जब देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया, तो अमृत पान के समय राहु नामक असुर ने छल से अमृत ग्रहण कर लिया। इस घटना को देखकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर काट दिया। राहु का सिर अमर हो गया और वह राहु ग्रह के रूप में स्थापित हो गया, जबकि उसका धड़ केतु के रूप में जाना गया।
ग्रहण का संबंध: पुराणों में बताया गया है कि सूर्य और चंद्र को राहु और केतु के द्वारा समय-समय पर ग्रहण लगते हैं। यह कथा बताती है कि राहु और केतु सूर्य और चंद्रमा को निगलने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनका धड़ न होने के कारण वे ऐसा नहीं कर पाते और ग्रहण समाप्त हो जाता है।
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